चिन्मस्तिका देवी: Devi Chhinnamasta

  चिन्मस्तिका देवी का स्वरूप चिन्मस्तिका देवी का स्वरूप अद्भुत और असामान्य है। उनके इस अद्वितीय रूप का गहरा आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक महत्व है। मस्तक का स्वयं बलिदान: देवी ने अपने ही मस्तक को काटकर उसे हाथ में थाम रखा है। उनके गले से तीन धाराओं में रक्त प्रवाहित हो रहा है, जो जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म का प्रतीक है। तीन रक्त की धाराएँ: पहली धारा देवी के मुख में जा रही है। अन्य दो धाराएँ उनके दोनों सहायकों या दासियों के मुख में जा रही हैं, जो तृप्ति और भक्ति का प्रतीक हैं। कमल पर खड़े रहना: देवी एक विशाल कमल के फूल पर खड़ी हैं, जो ब्रह्मांडीय चेतना और शुद्धता का प्रतीक है। शिव पर खड़े रहना: देवी अपने चरणों से भगवान शिव के शरीर पर खड़ी हैं, जो जड़ता (passivity) और शक्ति (energy) के सामंजस्य को दर्शाता है। आभूषण और माला: उनके गले में नरमुंडों की माला और शरीर पर साधारण आभूषण हैं, जो जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु की अपरिहार्यता को दर्शाते हैं। दासी रूप में संगिनी: उनके दोनों ओर उनकी सहायक दासियाँ हैं, जो उनके दिव्य बल और शक्ति में सहयोगी हैं। पौराणिक कथा और महत्व चिन्मस्तिका देवी के इस र...

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आखिर गर्भ मे शरीर कैसे बनता है, और बाहर क्या लेकर आता है

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।।राम।।
अदभुद रहस्य
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सहवास के बाद एक रात्रि मे शुक्रशोणित के संयोग से ‘कलल’ बनता है।

सात रात में ‘बुद्बुद’बनता है।

पन्द्रह दिन में ‘ पिण्ड’ बनता है ।

एक महीने मे पिण्ड कठोर होता है ।

दूसरे महीने में सिर बनता है ।

तीसरे महीने मे पैर बनते हैं ।

चौथे महीने में पैर की घुट्टियाँ ,पेट,तथा कटिप्रदेश बनता है ।

पाँचवे महीने पीठ की रीढ बनती है ।

छठे महीने मुख,नासिका,नेत्र और कान बनते हैं ।

सातवें महीने जीव से युक्त होता है ।

आठवें महीने सब लक्षणों से युक्त है जाता है।

नवें महीने उसे पूर्व जन्मों का स्मरण होता है और तभी ईश्वर से प्रार्थना करता है । हे प्रभु ! मुझे गर्भ से बाहर करिये मेरी सारी गल्तियों को क्षमा करिये। आप का ही नाम जपूँगा ,सतपथ पे चलूँगा ।

लेकिन ::::::::

गर्भ से बाहर आते ही वैष्णवी वायु ( माया ) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है। और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं।

शरीर साथ मे क्या लाता है:::::::

तीन प्रकार की अग्नियाँ साथ मे रहती हैं।

आहवनीय अग्नि मुख मे रहता है।

गार्हपत्य अग्नि उदर मे रहता है ।

दक्षिणाग्नि ह्रदय में रहता है ।

आत्मा यजमान है ।

मन ब्रह्मा है ।

लोभादि पशु हैं ।

धैर्य सन्तोष दीक्षाएं हैं।

ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञ के पात्र है।

कर्मेंद्रियाँ होम करने की सामग्री हैं।

सिर कपाल है केश दर्भ है।

मुख अन्तर्वेदिका है सिर चतुष्कपाल है।

पार्श्व की दन्त पंक्तियॉ षोडश कमल हैं।

एक सौ सात मर्म स्थान हैं।

एक सौ अस्सी संधियॉ हैं।

एक सौ नौ स्नायु हैं।

सात सौ सिरायें हैं।

पाँच सौ मज्जायें हैं ।

तीन सौ साठ अस्थियाँ हैं।

साढे चार करोड रोम हैं।

आठ तोला ह्रदय है।

बारह तोला की जुबान है।

एक सेर पित्त है।

ढाई सेर कफ है।

पाव भर शुक्र है।

दो सेर मेद है।

इसके अतिरिक्त शरीर मे आहार के परिमाण से मल मूत्र का परिमाण अनियमित होता है।

यही सब वस्तुयें शरीर अपने साथ लाता है।

।।राम।।

डा.अजय दीक्षित
Drajaidixit@gmail.com

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