जन्म- 18 दिसंबर 1756
मृत्यु- 1850
गुरु
घासीदास भारत के छत्तीसगढ़ राज्य की संत परंपरा में सर्वोपरि हैं।
बाल्याकाल से ही घासीदास के हृदय में वैराग्य का भाव प्रस्फुटित हो चुका
था। समाज में व्याप्त पशुबलि तथा अन्य कुप्रथाओं का ये बचपन से ही विरोध
करते रहे। समाज को नई दिशा प्रदान करने में इन्होंने अतुलनीय योगदान दिया
था। सत्य से साक्षात्कार करना ही गुरु घासीदास के जीवन का परम लक्ष्य था।
'सतनाम पंथ' का संस्थापक भी गुरु घासीदास को ही माना जाता है।
बाबा
गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में गिरौद नामक ग्राम में
हुआ था। उनके पिता का नाम मंहगू दास तथा माता का नाम अमरौतिन था और उनकी
धर्मपत्नी का सफुरा था।
गुरु
घासीदास का जन्म ऐसे समय हुआ जब समाज में छुआछूत, ऊंचनीच, झूठ-कपट का
बोलबाला था, बाबा ने ऐसे समय में समाज में समाज को एकता, भाईचारे तथा
समरसता का संदेश दिया।
घासीदास
की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार
दिखाए, जिसका लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा। > गुरु घासीदास ने समाज के
लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की
आराधना की, बल्कि समाज में नई जागृति पैदा की और अपनी तपस्या से प्राप्त
ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता की सेवा के कार्य में किया।
इसी
प्रभाव के चलते लाखों लोग बाबा के अनुयायी हो गए। फिर इसी तरह छत्तीसगढ़
में 'सतनाम पंथ' की स्थापना हुई। इस संप्रदाय के लोग उन्हें अवतारी पुरुष
के रूप में मानते हैं। गुरु घासीदास के मुख्य रचनाओं में उनके सात वचन
सतनाम पंथ के 'सप्त सिद्धांत' के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसलिए सतनाम पंथ
का संस्थापक भी गुरु घासीदास को ही माना जाता है।
गुरू घासीदास की शिक्षा
बाबा
जी को ज्ञान की प्राप्ति छतीशगढ के रायगढ़ जिला के सारंगढ़ तहसील में
बिलासपुर रोड (वर्तमान में)में स्थित एक पेड़ के नीचे तपस्या करते वक्त
प्राप्त हुआ माना जाता है जहाँ आज गुरु घासीदास पुष्प वाटिका की स्थापना की
गयी है
गुरू
घासीदास बाबाजी ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने
ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा और कई वर्णों में बांटने वाली जाति
व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति
सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को
वर्जित किया। वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा
सम्बन्ध है।
गुरू
घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक
व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का
इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के
पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त
लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे।
छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू
घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी
जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। यह
छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।
सप्त सिद्धांत
इनके
सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें
सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध,
व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं।
इनके द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास,
व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक
तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में ये सफल हुए और
छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज भी लाखों अनुयायी
हैं।
समाज सुधार
संत
गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया।
उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध 'मनखे-मनखे एक समान'
का संदेश दिया। छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से
माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के
साथ मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गाँव-गाँव में मड़ई-मेले का आयोजन होता
है। गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये
आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश
स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से
प्रकट है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना एवं सामाजिक
न्याय के क्षेत्र में 'गुरु घासीदास सम्मान' स्थापित किया है।
मुख्य कार्य
गुरु
घासीदास ने विशेष रूप से छत्तीसगढ़ राज्य के लोगों के लिए सतनाम का प्रचार
किया। घसी दास के बाद, उनकी शिक्षाओं को उनके पुत्र बालाकदास ने लोगों तक
पहुँचाया। गुरु घासीदास ने छत्तीसगढ़ में सतनामी संप्रदाय की स्थापना की थी
इसीलिए उन्हें ‘सतनाम पंथ’ का संस्थापक माना जाता है
गुरु
घंसिदास का समाज में एक नई सोच और विचार उत्पन्न करने के बहुत बड़ा हाँथ
है। घासीदास जी बहुत कम उम्र से पशुओं की बलि, अन्य कुप्रथाओं जैसे जाती
भेद-भाव, छुआ-छात के पूर्ण रूप से खिलाफ थे। उन्होंने पुरे छत्तीसगढ़ के हर
जगह की यात्रा की और इसका हल निकालने का पूरा प्रयास किया।
उन्होंने
(Satnam) यानी की सत्य से लोगों को साक्षात्कार कराया और सतनाम का प्रचार
किया। उनके अनमोल विचार और सकारात्मक सोच, हिन्दू और बौद्ध विचार धाराओं से
मिलते झूलते हैं। उन्होंने सत्य के प्रतिक के रूप में ‘जैतखाम’
को दर्शाया – यह एक सफ़ेद रंग किया हुआ लकड़ियों का ढेर होता है जिसके ऊपर
एक सफ़ेद झंडा फहराता है। इसके सफ़ेद रंग को सत्य का प्रतीक माना जाता है।
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