“गौरैया दिवस पर कविता”
आज पहाड़ों पर गौरैया बहुत कम नजर आती हैं ।।
न जाने क्यों आज भी ये हमें
अपनें पुरखों की याद दिलाती हैं ।।
मुझे खुब याद है हमारे मिट्टी वाले घर होते थे
जिनमें हर एक कमरे के ऊपर गौरैया के घौसले होते थे ।।
वह सुबह - श्याम आज भी याद आती है
जब गौरैया हमारे बेडे़ व छत्तों में चिक्क चिक्काती थी ।।
हर घर के आगे फलों के पेड़ होते थे
हर ऑगन में पशु बॅंधे होते थे ।।
सुबह - सुबह गौरैया की आवज उठा देती थी ।
वो बसंत की हवा महका देती थी ।।
हर पेड़े पौधे खिले-खिले नजर आते थे ।।
हम गैरैया के पीछे-पीछे दौड़े - दौड़े जाते थे ।
आज भी वो नन्नी सी  गौरैया याद आती है
न जाने  क्यों हमें अपने बुर्जगों की याद दिलाती है ।।
वो गौरैया तिनके -तिनके जोड़कर
अपना घौसला बनाती थी ।
और दाना -दाना चुंगकर उसी के पास मंडराती थी ।।
खुश नसीब हैं वो घर जिनमे गौरैया ऊड़कर आती है
अपना घौसला या आशियान वहाँ बनाती है ।।
आज ढँढ़कर भी कहीं गौरिया नजर नहीं आती है
न वो बुर्जग रहे न रहे वो दानी
जो रखते थे पहले गौरिया को खाना व पानी ।।
आज तो योंहि कविताओं के जरिये सुननी है
गौरैया की कहानी
आज भी वह न‌न्ही सी गौरिया याद आती है ।
एक वही है जो बुर्जगों की याद दिलाती है ।।
एक वही गौरैया है जो अपनों की याद दिलाती है ।।
                        पं उपेन्द्र प्रसाद भट्‌ट
                                        उत्तराँचल टिहरी गढ़वाल
                                    डागर पटटी
                                            रिंगोल गॉव

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